रविवार, 13 नवंबर 2011

14 नवम्बर !

सुनो तुम केवल बौद्धिक जुगालियां करती रहती हो, दुसरे शब्दों में बस चले तो बौद्धिकता  ही  ओढती, बिछाती,पहनती हो, वो बौद्धिकता जो किताब पढ़-पढ़ कर अर्जित की जाती है! इससे ये हुआ कि तुमने अपने  पंख (मन के ) अनंत तक फैला लिए हैं, प्रायः ब्रह्माण्ड (धरती ही नहीं ब्रह्माण्ड ) के चक्कर लगाती हो, नक्षत्रों में पता नहीं क्या खोजती रहती हो, सड़क पर आकाश में देखती चलती हो ( कहीं स्वाति के बूँद कि प्रतीक्षा तो नहीं ?) कैसे समझाउं तुम्हें? धरती के छोड़ो को नापना यायावरी हो सकती है, अकलमंदी नहीं!  आशय ये कि थोड़ी-थोड़ी पागल हो! इस पागलपन कि ख़ास बात ये है कि तुम ये सब जानबूझकर करती हो! तुम विद्रोह की  ज्वाला में सुलगती रहती हो,तुम्हारा अपना अस्तित्व भी तो इसकी ताप महसूस करता होगा? हालांकि तुम नदी के सामान प्रवाहित होना चाहती हो, किन्तु कभी-कभी इतनी धाराओं में बिभक्त होने लगती हो कि उलझ सी जाती हो, वैसे डेल्टा बनना भी अच्छी बात है!  याद रखना दुनिया बहुत कठोर है अपने लिए उसे कोमल तुम्हें ही बनाना होगा  !

एकालाप

तुम्हारे और मेरे बीच
अरजेंट सी कोई बात क्या होगी?
 इसके लिए कोई जगह ही नहीं है,
 मन नहीं लग रहा मेरा,
 घबराहट सी है दिल में,
 एक बेचैनी है, हुक सी उठ रही है,
जोर-जोर से रोने का मन कर रहा है,
बोलो इसमें ऐसा क्या अरजेंट है,
 जो मैं अभी के अभी तुमसे कहंु?
लग रहा है मैं हंू ही नहीं,
मेरा मैं मुझसे भागा सा जा रहा है,
छूकर  तुम कहो,  तुम हो!
ये आश्वस्ति चाहिए थी,
ये इतना अरजेंट नहीं है ना
कि---------------------
 जब-तब तुम मुझे छूकर
मेरा होना बताते रहो।