सोमवार, 9 जुलाई 2012

मुझे छूने से 
मेरे अंधेरों को भी 
छु लिया तुमने?

मैं, मैं ही तो  हूँ  
तुम, तुम ही रहे 
अपने दायरों में!

जान कर भी 
बनते रहे अनजान 
रास्तों, गलियों में 

बेशक मिलते हो तुम
तनहाइयों में
एक अलग ही चेहरा लिए!





शनिवार, 7 जुलाई 2012

एक क्षण चाहा कि--
यूँ होता तो क्या होता
नहीं कुछ नहीं होता,
नहीं होने पर 
फिर सोच जो लिया 
नहीं होता यूँ 
तो भी कुछ नहीं होता 
सबकुछ पहले सा चलता ही रहता !

एक चाह के बनने से
बनकर फिर मिटने से
कहाँ कुछ फर्क पड़ता है 
आखिर ये चीज़ ही क्या है?
एक क्षण का सच?
एक अवधि का सच?
या, एक उम्र का सच?
उस क्षण, अवधि या उम्र के बाद हो कि न हो!