रविवार, 13 नवंबर 2011

एकालाप

तुम्हारे और मेरे बीच
अरजेंट सी कोई बात क्या होगी?
 इसके लिए कोई जगह ही नहीं है,
 मन नहीं लग रहा मेरा,
 घबराहट सी है दिल में,
 एक बेचैनी है, हुक सी उठ रही है,
जोर-जोर से रोने का मन कर रहा है,
बोलो इसमें ऐसा क्या अरजेंट है,
 जो मैं अभी के अभी तुमसे कहंु?
लग रहा है मैं हंू ही नहीं,
मेरा मैं मुझसे भागा सा जा रहा है,
छूकर  तुम कहो,  तुम हो!
ये आश्वस्ति चाहिए थी,
ये इतना अरजेंट नहीं है ना
कि---------------------
 जब-तब तुम मुझे छूकर
मेरा होना बताते रहो।   

शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2011

बस यु ही कुछ..........


बहुत दिनों से कुछ अपने मन की लिखने की सोच रही थी, अरसे से जो छपने के लिए माँगा गया वही लिख रही थी! अब  मौसम बदल रहा है तो मन भी, हालाँकि बंगलोर में मौसम का बदलना उतना पता नहीं चलता सब एक सा ही मौसम रहता है, सूरज थोडा खुश हुआ तो मेहरबान हो जाता है थोडा सा इतरा कर चमकना ही चाहता है कि बादल उस पर पानी फेर देते हैं! शुरुआत में यहाँ का मौसम अच्छा लगा था पर हम गंगा किनारे वालों को जम कर गर्मी, सर्दी झेलने कि आदत है! फिलहाल तो अपने यहाँ की गुलाबी सर्दियों के दिन याद आ रहे हैं जो दिवाली की रात अच्छे से महसूस होता था और छठ के दुसरे अरग के दिन स्वेटर शाल निकलवा ही  देता था! घर से बाहर रहते हुए सोलह-सत्रह साल हो गए पर अब भी साल के ये दिन बहुत नोस्तेलेजिक बना देते हैं, कहीं भी रहूँ रूह अपनी जड़ों में पहुच जाती  है ! इन सालों में ज्यादातर मौकों पर घर चली ही जाती थी पर अब संभव नहीं है बेटे का स्कूल और दूरी! 
यही नवम्बर दिसम्बर के हलकी सर्दी और थोड़ी लम्बी शामों वाले दिन हुआ करते थे, जब  रोड पर पीली रौशनी वाले लैम्पपोस्टों  में हलकी  ओस उतरती सी दिखती थी!  अपने आस-पास सब बहुत रोमानी लगता था और दुनिया सबसे खूबसूरत वहीँ लगती थी , तब सोच कर भी नहीं सोचा जा पाता था हम कहीं और भी एडजस्ट कर सकते हैं! अजीब दिक्कत होती है हम जैसे लोगों को, जहनी तौर पर हमेशा जिस शहर को छोड़ आयें वही रहते हैं ,  जहाँ रहते हैं वहां होकर भी नहीं होते और जहाँ  लौटना चाहते हैं वहां लौटने की हिम्मत नहीं कर पाते, खुद आगे निकल जाते हैं   पर उम्मीद करते हैं वहां समय  उसी फ्रेम में  फ्रीज़ हो! 
अभी इतना ही और बाद में..........